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कविता

बोलने की आजादी पर कविता

असीमा भट्ट


हो सकता है वे मेरी
हत्या कर दें या करवा दें
वो लोग जो मेरे सवालों से डरते हैं
वो लोग जिन्हें मेरे विचार तेजाब की तरह लगते हैं
वो लोग जिन्हें मेरे हँसने पर भी गुरेज है
उन्हें जिन्हें लगता है उनके समाज और घर के लिए
असीमा जहर है
जो फैल रहा है धीरे धीरे
उनके घरों में
उनकी बहन बेटी और बीवी में
क्योंकि अब वे भी असीमा की बोली बोलने लगी हैं
करने लगी हैं सवाल
पूछने लगी हैं - 'क्यों' ?
सवाल बहुत डराते हैं उनको
बस उनकी सुनो और कोई सवाल मत करो
वे फासिस्ट हैं
इन्हें तर्क करने वाले दिमाग आततायी लगते हैं
वो लोग जो फिर से अँधेरे जमाने में धकेल देना चाहते हैं मुझे
और दबा देना चाहते हैं मेरी आवाज
माफ करना किसी भी आतंक से मुझे डर नहीं लगता
और यही बात उन्हें डराती है - असीमा डरती क्यों नहीं ?
दुनिया के बड़े बड़े तानाशाह मिट गए सच के आगे
वो अपनी ताकत का डंका भले चाहे जितना पीटें
उन्हें पता है अपनी कमजोरियाँ
और डरे हुए हैं इस नाचीज असीमा से
हाँ डरा हुआ रहता है हर तानाशाह
बहुत कमजोर होता है
इन्हें डाक्टर की दवाइयाँ और मनोवैज्ञानिक थेरेपी भी मदद नहीं कर पाती
मत होना आतंकित और मत रोना मेरे मरने के बाद
मैं कहीं नहीं जाऊँगी
मैं रहूँगी इसी धरती पर इन्हीं हवाओं में
और हर उस शख्स के दिलों में जो जुल्म और संघर्ष के खिलाफ आवाज उठाते रहेंगे
'यह जान तो आनी जानी है इस जान की तो कोई बात नहीं'
सवाल करना मत बंद करना
बोलना जो तुम्हारा मन कहे
फैज को याद रखना कि 'बोल के लब आजाद हैं तेरे'


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